"कुम्भ-कथा : स्नान के विपश्यनापरक आयाम व कुम्भ पर्व की शिवमयी पूर्णाहुति"
यह विदित है कि हिंदू परम्परा में स्नान नित्य कर्म भर नहीं, नैमित्तिक कृत्य भी है। वह भी इतना महत्वपूर्ण कि यज्ञ के समान। यज्ञ अग्नि है, ताप है, धूम है। स्नान जल है, वरुण है, वर्षा है। मानव के लिए ग्रीष्म में अग्नि असह्य होगी, शीत में जल असह्य होगा। परंतु दोनों की भूमिका है। अग्नि का साहचर्य स्वेदन से शोधन करता है। जल का साहचर्य मार्जन से शोधन करता है। हर मार्जन एक मर्दन भी है। वह शीतल अभ्यंग मालिश भी है।
परन्तु यह तो प्राकृतिक चिकित्सा या आयुर्वेद के लिए महत्वपूर्ण हो सकता है, अध्यात्म के लिए कहाँ से महत्वपूर्ण रहा है। स्नान का एक बौद्ध विपश्यनापरक आयाम भी है। कथा है कि बुद्ध ने भिक्षुओं को वर्षा में स्नान के लिए प्रेरित किया था। अनावृत स्नान हेतु भी अनुमत किया था।
विपश्यना संवेदनाओं के प्रति सजग स्मृति है। श्वास, संवेदना व स्वत्व में वह द्वितीय आयाम है। वह सजग रूप से तन की संवेदनाओं को देखना भी है और उसके साथ बोधिमय होना भी है। योग के अष्टांग का षष्ठ अंग धारणा भी यही है। कर्मकाण्ड के षडंगन्यास का भी यही बोध रहा हो सकता है, जो क्षणिक मंत्रोच्चार में खोकर रह गया।
स्नान यदि विपश्यनापरक हो जाए, धारणापरक हो जाए, तो वह मन का भी मार्जन बन जाये। बुद्ध की पदावली में कहें, तो वह संस्कारों के क्षय का हेतु बन जाये। परन्तु वह सजग करे तब। औंधे घड़े वर्षा में भींग कर भी भरने से वंचित रह सकते हैं। कुम्भ तो भर कर छलकने का है, घट को महाकुंभ बनने का है।
कुम्भपर्व का प्रयागराज खंड माघमेला है। माघमास की शीत ऋतु बलात् सजग करती है, सिहरा कर, कंपित कर। सामान्य स्नान विस्मृत होकर भी किया जा सकता है, परन्तु यह स्नान नहीं। स्नान भी सरिता तट पर है, त्रिकालपरक है, मासपर्यंत है। सो वह हेतु बन सकता है। लेकिन तभी जब वह बोध हो, अन्यथा तो वह कुछ घड़ी की अनुभूति व अभिभूति बन कर रह जाती है।
जैन धर्म में संस्कारक्षय के लिए कायाक्लेश का सिद्धांत है। वह सविपाक की बजाय अविपाक कर्म के रूप में ही संस्कारों का क्षय करता है। यह सनातन परम्परा का परिष्कारपरक प्रायश्चित है।
कुम्भ स्नान एक प्रकार तप है, वह शीत तप है, जो अग्निमय तप का ही प्रभाव रखता है। वह पाप का क्षय करे न करे, संताप का, परिताप का क्षय करता है, प्रवाह से, और सनातन बोधि कहती है कि वह शाप से मुक्त भी कर सकता है।
सब संस्कार ही तो हैं— पाप भी, शाप भी, परिताप भी, संताप भी। संस्कार भी कर्म व भाव दोनों के हैं। वे वृत्ति, विचार व वचन तक के हैं। इनके क्षय के लिए संसार का कुछ संन्यास भी चाहिए व कुछ पार का सत्संग भी चाहिए। इसमें प्रकृति का मुक्त प्रांगण व संस्कृति की समर्पित ऊर्जा भी जुड़ जाए, तो यह अत्यंत प्रभावी हो सकता है।
कुम्भपर्व की समाप्ति शिवरात्रि के साथ है। वह शिवत्व पाने का भाव है। वैराग्य व निर्मलता जगाने का भाव है। वही अंतिम साध्य है, वही वांछित सिद्धि है। महाकुंभ महाशिवरात्रि के साथ समाप्त हो रहेगा। शिव संकल्पमस्तु!
Created On: March 04, 2025